तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता
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तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
नहीं कि मुझ को क़यामत का ए'तिक़ाद नहीं
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का