दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं
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'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है