मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
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देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
जान दी दी हुई उसी की थी
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से