क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर
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क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन