ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है
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हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
लताफ़त बे-कसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
मरते हैं आरज़ू में मरने की