इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
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बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
है ख़बर गर्म उन के आने की
पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह