कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
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शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना