हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है
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आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'