मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
यार लाए मिरी बालीं पे उसे पर किस वक़्त
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हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया