हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझाएँगे क्या
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मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
कोई उम्मीद बर नहीं आती
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़