वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे
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दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता