छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं
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एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया
या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर