गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
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शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'