दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ
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रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना