अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की
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आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
कोई उम्मीद बर नहीं आती
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वह मेरे
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है