कौन सुनता है हवाओं की अजब सरगोशियाँ
और जाती हैं हवाएँ दर-ब-दर किस के लिए
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है सफ़र में कारवान-बहर-ओ-बर किस के लिए
फिर कोई ख़्वाब तिरे रंगों से जुदा नहीं देखा
महजूर कोई बात दिलेराना लिखेगा
चलते चलते यूँही क़दम जब डोलता है
अव्वल-ए-इश्क़ की साअत जा कर फिर नहीं आई
हाँ मैं शिकस्ता-दिल हूँ मगर आइना तो हूँ
इक रब्त था ब-रंग-ए-दिगर भी नहीं रहा
पहले सब आवाज़ें इक शोर में ढलती हैं
उजड़े हुए हैं शहर के दीवार-ओ-दर न जा
ग़ज़ल अपनी रिवायत है ग़ज़ल तहज़ीब से होगी
हम शेर सुनाते हैं मफ़्हूम तुम्हारा है