पहले सब आवाज़ें इक शोर में ढलती हैं
फिर कोई नग़्मा कानों में रस घोलता है
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इक रब्त था ब-रंग-ए-दिगर भी नहीं रहा
चलते चलते यूँही क़दम जब डोलता है
हम शेर सुनाते हैं मफ़्हूम तुम्हारा है
कफ़-ए-सैय्याद दाम-ए-ख़ुश-नुमा ज़ंजीर ओ ज़िंदाँ तक
हाँ मैं शिकस्ता-दिल हूँ मगर आइना तो हूँ
ये क़िस्सा-ए-जाँ यूँ ही मशहूर नहीं होता
फिर कोई ख़्वाब तिरे रंगों से जुदा नहीं देखा
महजूर कोई बात दिलेराना लिखेगा
कौन सुनता है हवाओं की अजब सरगोशियाँ
है सफ़र में कारवान-बहर-ओ-बर किस के लिए
छूटे हैं ऐसे बार-ए-सफ़र से तमाम लोग
उजड़े हुए हैं शहर के दीवार-ओ-दर न जा