ये क़िस्सा-ए-जाँ यूँ ही मशहूर नहीं होता
लाज़िम तो हमारा था मलज़ूम तुम्हारा है
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छूटे हैं ऐसे बार-ए-सफ़र से तमाम लोग
अव्वल-ए-इश्क़ की साअत जा कर फिर नहीं आई
उजड़े हुए हैं शहर के दीवार-ओ-दर न जा
हाँ मैं शिकस्ता-दिल हूँ मगर आइना तो हूँ
ग़ज़ल अपनी रिवायत है ग़ज़ल तहज़ीब से होगी
पहले सब आवाज़ें इक शोर में ढलती हैं
महजूर कोई बात दिलेराना लिखेगा
इक रब्त था ब-रंग-ए-दिगर भी नहीं रहा
हम शेर सुनाते हैं मफ़्हूम तुम्हारा है
है सफ़र में कारवान-बहर-ओ-बर किस के लिए
चलते चलते यूँही क़दम जब डोलता है