मैं मुनक़्क़श हूँ तिरी रूह की दीवारों पर
तू मिटा सकता नहीं भूलने वाले मुझ को
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गुम इस क़दर हुए आईना-ए-जमाल में हम
किस ए'तिमाद से इल्ज़ाम धर गए अपने
अब दुआओं के लिए उठते नहीं हैं हाथ भी
किरदार
सूफ़ी-ए-शहर मिरे हक़ में दुआ क्या करता
सहर से एक किरन की फ़क़त तलब थी मुझे
सर पे तेग़-ए-बे-अमाँ हाथों में प्याला ज़हर का
साए की उम्मीद थी तारीकियाँ फैला गया
हवा-ओ-हिर्स की दुनिया में दर-ब-दर हुए हम
खुली आँखों से सपना देखने में
मैं एक उम्र के बा'द आज ख़ुद को समझा हूँ
सैल-ए-बला-ए-ग़म न पूछ कितने घरौंदे ढह गए