सुब्ह से शाम हुई रूठा हुआ बैठा हूँ
कोई ऐसा नहीं आ कर जो मना ले मुझ को
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मैं मुनक़्क़श हूँ तिरी रूह की दीवारों पर
हवा-ओ-हिर्स की दुनिया में दर-ब-दर हुए हम
मिरी नवा मिरी तदबीर तक नहीं पहुँची
ख़ुद से ना-ख़ुश ग़ैर से बेज़ार होना था हुए
शहर का शहर लुटेरा है नज़र में रखिए
मिरे वजूद के दोज़ख़ को सर्द कर देगा
साए की उम्मीद थी तारीकियाँ फैला गया
अक़्ल कहती है कोई ढूँड मफ़र की सूरत
चार जानिब से सदा आई मिरी
दुरुश्त क्यूँ था वो इतना कलाम से पहले
किसी के सामने इज़हार-ए-दर्द-ए-जाँ न करूँ
मौत से यारी न थी हस्ती से बे-ज़ारी न थी