तन्हा खड़ा हूँ मैं भी सर-ए-कर्बला-ए-अस्र
और सोचता हूँ मेरे तरफ़-दार क्या हुए
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दस्तकें सुनते हैं सब दर खोलता कोई नहीं
मैं एक उम्र के बा'द आज ख़ुद को समझा हूँ
सबा में था न दिल-आवेज़ी-ए-बहार में था
सुब्ह से शाम हुई रूठा हुआ बैठा हूँ
किस ए'तिमाद से इल्ज़ाम धर गए अपने
सहर से एक किरन की फ़क़त तलब थी मुझे
इक तलातुम सा है हर सम्त तमन्नाओं का
कैसे कहें दर-ब-दर नहीं हम
दुरुश्त क्यूँ था वो इतना कलाम से पहले
सदा-कार
मौत से यारी न थी हस्ती से बे-ज़ारी न थी
दुखों के दश्त ग़मों के नगर में छोड़ आए