तुम्हें जब रू-ब-रू देखा करेंगे
ये सोचा है बहुत सोचा करेंगे
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ग़ज़लों की धनक ओढ़ मिरे शोला-बदन तू
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले
आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म
सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं
फ़ज़ा का हब्स शगूफ़ों को बास क्या देगा
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो
एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें
अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
उजड़ उजड़ के सँवरती है तेरे हिज्र की शाम
ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा