वफ़ा की कौन सी मंज़िल पे उस ने छोड़ा था
कि वो तो याद हमें भूल कर भी आता है
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बहुत दिनों बा'द
मैं सोचता हूँ
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले
तुम्हें जब रू-ब-रू देखा करेंगे
पलट के आ गई ख़ेमे की सम्त प्यास मिरी
जो दे सका न पहाड़ों को बर्फ़ की चादर
मैं दिल पे जब्र करूँगा तुझे भुला दूँगा
ये पिछले इश्क़ की बातें हैं
अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता
अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर
वो शाख़-ए-महताब कट चुकी है
जब हिज्र के शहर में धूप उतरी मैं जाग पड़ा तो ख़्वाब हुआ