इक शम्अ सर-ए-राह जली ख़ैर हुई
तशवीश की हाजत न रही ख़ैर हुई
कमज़ोर सही मगर उजाला तो हुआ
तौक़ीर-ए-हयात बढ़ गई ख़ैर हुई
Wasi Shah
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
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ऐ साहब-ए-ज़र अमीर-ए-आला तू कौन
नज़र मिली थी किसी बे-ख़बर से पहले भी
अपनी पर्वाज़ को मैं सम्त भी ख़ुद ही दूँगा
हवा-ए-तुंद के आगे धुआँ ठहरता नहीं
सोहबत-ए-शब का तलबगार न होगा कोई
मौज-ए-गुल बर्ग-ए-हिना आब-ए-रवाँ कुछ भी नहीं
ऐ आबला-पा और भी रफ़्तार ज़रा तेज़
गीत मेरे हैं मगर नूर-ए-सुख़न उस का है
तदबीर-ए-शिफ़ा किसे बताए कोई
रंग-ए-वहशत कम नहीं ज़ख़्म-ए-तमाशा कम नहीं
मिरे ख़याल से आगे तिरा निशाना पड़ा