अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
हर ज़र्रे में सौ रौशनियाँ घुलती हैं
जब सुब्ह को वो नींद से बोझल आँखें
खिलती हुई कलियों की तरह खुलती हैं
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एक धोका है ये शब-रंग सवेरा क्या है
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
रौनक़ बढ़ेगी रू-ए-नशात-ए-जमाल की
महसूस भी हो जाए तो होता नहीं बयाँ
ग़म की रातों के ख़्वाब लाया हूँ
इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
आँखों में सहर झलक रही है गोया
सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
बिजलियों की हँसी उड़ाने को