अल्फ़ाज़ की रग रग में रचाता हूँ लहू
ताबिंदा ख़यालों को पिलाता हूँ लहू
हर शेर की मेहराब में मशअ'ल की तरह
मैं अपनी जवानी का जलाता हूँ लहू
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कैसे बे-सोज़ लोग हो यारो
ग़म की रातों के ख़्वाब लाया हूँ
ले के दिल दर्द पाएदार दिया
सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
बीते हुए लम्हों का इशारा ले कर
एक धोका है ये शब-रंग सवेरा क्या है
इंतिक़ाम-ए-ग़म-ओ-अलम लेंगे
अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
चाँदनी रात की ख़मोशी में
एक आम सी लड़की