ले के दिल दर्द पाएदार दिया
चाँदनी के एवज़ ग़ुबार दिया
शर्म आती है आप से कहते
आप की दोस्ती ने मार दिया
Wasi Shah
Gulzar
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ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
महसूस भी हो जाए तो होता नहीं बयाँ
चाँदनी से धुली हुई रातें
चेहरे की तब-ओ-ताब में कौंद लपके
एक धोका है ये शब-रंग सवेरा क्या है
गुनाहों से हमें रग़बत न थी मगर या रब
अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
मेरी ग़मगीन ओ ज़र्द सूरत को
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
साक़िया साक़िया सँभाल उसे
इंतिक़ाम-ए-ग़म-ओ-अलम लेंगे
चाँदनी रात की ख़मोशी में