आँखों में सहर झलक रही है गोया
होंटों से शफ़क़ ढलक रही है गोया
यूँ फबके हुए जिस्म में रक़सा है शबाब
पैमाने से मय छलक रही है गोया
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ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
चाँदनी रात की ख़मोशी में
राख
नारवा है किसी की हमराही
शाम-ए-वादा का ढल गया साया
इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
ता हद्द-ए-नज़र दमक रहे हैं ज़र्रे
रात की पुर-सुकूत ज़ुल्मत में
एक आम सी लड़की
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
बिजलियों की हँसी उड़ाने को
ये सोच कर भी हँस न सके हम शिकस्ता-दिल