रात की पुर-सुकूत ज़ुल्मत में
फ़र्त-ए-हसरत से रो रहा है कोई
ज़िंदगी के हसीन खेतों में
दुख-भरे गीत बो रहा है कोई
Wasi Shah
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एहसास-ए-नशात की कमी देखोगे
बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
रौनक़ बढ़ेगी रू-ए-नशात-ए-जमाल की
इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
चेहरे की तब-ओ-ताब में कौंद लपके
तू मिरी ज़िंदगी का परतव है
मैं तो क्या मुझ को देखने वाला
कैसे बे-सोज़ लोग हो यारो
चाँदनी रात की ख़मोशी में
अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं