तू मरी ज़िंदगी का परतव है
में तिरी आरज़ू का साया हूँ
फिर भी तुझ को मैं हद्द-ए-इम्काँ तक
एहतियातन पुकार आया हूँ
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गुनाहों से हमें रग़बत न थी मगर या रब
तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
चाँदनी रात की ख़मोशी में
रात की पुर-सुकूत ज़ुल्मत में
डस गई तेरी काएनात मुझे
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
ता हद्द-ए-नज़र दमक रहे हैं ज़र्रे
ए'तिराफ़
साक़िया साक़िया सँभाल उसे
दुनिया है इरम से भी हसीं देख ज़रा
अमृत से फ़ज़ाएँ दम-ब-दम धुलती हैं
चाँदनी से धुली हुई रातें