इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
Javed Akhtar
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बिजलियों की हँसी उड़ाने को
लाख काटो रगें सदाक़त की
चाँदनी रात की ख़मोशी में
इंतिक़ाम-ए-ग़म-ओ-अलम लेंगे
अल्फ़ाज़ की रग रग में रचाता हूँ लहू
महफ़िल उन की साक़ी उन का
रौनक़ बढ़ेगी रू-ए-नशात-ए-जमाल की
फिर इस दुनिया से उम्मीद-ए-वफ़ा है
ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा
तू मिरी ज़िंदगी का परतव है
इस ग़म-ओ-यास के समुंदर में
नारवा है किसी की हमराही