लोगों के फोड़ता फिरे शीशे
मोहतसिब को तो मस्ख़रा कहिए
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ये सारा क़ज़िया तो हम से है इस से तुम को क्या
इस माजरा को जा के कहूँ किस के रू-ब-रू
जो बात मनअ' की है उसे कहिए क्यूँ
फ़स्ल-ए-गुल में हर घड़ी ये अब्र-ओ-बाराँ फिर कहाँ
किया अज़ल से है साने' ने बुत-परस्त मुझे
जावे भी फिर आवे भी कई शक्ल से हर बार
ईधर से सेते जाओ और ऊधर से फटता जाए
तुझ तेग़ की निगह से मिरा कट गया है दिल
नसीहत से मेरी ये सौ कोस भागे
जितना कि है इफ़रात तिरी कम-निगही का
वो जो इक तोला कई माशा थी यारी तुम से
चटपटी दिल की बुझी यार के देखे से यूँ