फिर ये मुमकिन ही नहीं है कि सँभालो मुझ को

फिर ये मुमकिन ही नहीं है कि सँभालो मुझ को

इक ज़रा क़ैद से बाहर तो निकालो मुझ को

इस हक़ीक़त की भी आमद हो मिरे हुजरे में

छोड़ के जाओ कभी ख़्वाबो ख़यालो मुझ को

जिस्म को दर्द में हँसने का हुनर आता है

इल्तिजा ये है कि पत्थर में न ढालो मुझ को

मैं ने पाबंदी लगा दी है ज़बाँ पर वर्ना

मुद्दआ' चीख़ रहा है कि उछालो मुझ को

तब तलक कूज़ा-गरो ख़्वाब है ता'बीर मिरी

जब तलक पूरी तरह तोड़ न डालो मुझ को

मावरा हूँ मैं हर इक लफ़्ज़-ए-सुख़न से जो मुझे

तुम को पढ़ना है तो फिर सोच में ढालो मुझ को

लो मैं करता हूँ मिरी ख़ाक तुम्हारे ही सिपुर्द

जैसी दरकार हो वैसा ही बना लो मुझ को

पहले मलबे को मिरे साफ़ करो ऊपर से

फिर मिरी ख़ाक के नीचे से निकालो मुझ को

आँखें नेज़े पे टिके देख के अपनी 'नायाब'

बोल उठे ख़्वाब भी अब तो कि न पालो मुझ को

(1552) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Phir Ye Mumkin Hi Nahin Hai Ki Sambhaalo Mujhko In Hindi By Famous Poet Nitin Nayab. Phir Ye Mumkin Hi Nahin Hai Ki Sambhaalo Mujhko is written by Nitin Nayab. Complete Poem Phir Ye Mumkin Hi Nahin Hai Ki Sambhaalo Mujhko in Hindi by Nitin Nayab. Download free Phir Ye Mumkin Hi Nahin Hai Ki Sambhaalo Mujhko Poem for Youth in PDF. Phir Ye Mumkin Hi Nahin Hai Ki Sambhaalo Mujhko is a Poem on Inspiration for young students. Share Phir Ye Mumkin Hi Nahin Hai Ki Sambhaalo Mujhko with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.