मालूम था तकलीफ़ सिवा गुज़रेगी
ता-क़ब्र न राहत से ज़रा गुज़रेगी
कुछ भी न जवानी ने कहा वक़्त-ए-विदाअ
इतना न बता गई कि क्या गुज़रेगी
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ख़ार-ओ-ख़स फेंके चमन के रास्ते जारी करे
अगर गुल की कोई पती झड़ी है
न छोड़ा दिल-ए-ख़स्ता-जाँ चलते चलते
हिज्र है अब था यहीं में ज़ार हम पहलू-ए-दोस्त
राज़ उल्फ़त के अयाँ रात को सारे होते
उक़्दे उल्फ़त के सब ऐ रश्क-ए-क़मर खोल दिए
दिला मा'शूक़ जो होता है वो सफ़्फ़ाक होता है
अंदोह-ए-शबाब टालने को ख़म हूँ
मुझ को मंज़ूर है मरने पे सुबुक-बारी हो
अब और ज़मीन-ओ-आसमाँ पैदा हो
सुर्ख़ हो जाता है मुँह मेरी नज़र के बोझ से