साक़ी ने हमें साग़र-ए-जम बख़्शे हैं
हाथों में सियह ज़ुल्फ़ के ख़म बख़्शे हैं
मौला ने हसीनों से वफ़ा के बदले
दुनिया में हमें लौह-ओ-क़लम बख़्शे हैं
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फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को
तहसीन के तोहफ़े मुझे 'साइब' देता
तू है कि एलोरा की कोई मूर्ती है
रहमत की कड़ी धूप में लेटूँ मौला
हाँ जुमला फ़नून-ए-ज़िंदगानी सीखे
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का
तख़्लीक़ के सक़्फ़-ओ-बाम पाटे जाएँ
शागिर्द किसी का हूँ न उस्ताद हूँ मैं
लिक्खे हैं फ़क़ीर ने जो शाही अल्फ़ाज़
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा