सच्चाई पे इक निगाह कर लूँ या-रब
अब दर्द की हद है आह कर लूँ या-रब
रखने को तिरी शान-ए-करीमी की लाज
मामूली सा इक गुनाह कर लूँ या-रब
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ख़ुद अपने तरीक़े में क़लंदर मैं हूँ
गेसू में वो सुम्बुल के चमन हैं मालूम
तू है कि एलोरा की कोई मूर्ती है
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
हैं क़ाफ़ से ख़त्ताती में पैदा औसाफ़
ज़ाहिर है रुबाई में मिरी दम क्या है
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा
इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का
हाँ मफ़्ती-ए-शहर ने फ़तवे भेजे
हाँ जुमला फ़नून-ए-ज़िंदगानी सीखे