उन की तो ये इरफ़ानी मनाज़िल में से है
और मेरे भी विजदानी मराहिल में से है
ख़त्ताती मैं करता हूँ कि ये भी दोस्त
अस्लाफ़ के रूहानी मशाग़िल में से है
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शागिर्द किसी का हूँ न उस्ताद हूँ मैं
जो नक़्श थे पामाल बनाए मैं ने
साक़ी ने हमें साग़र-ए-जम बख़्शे हैं
इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का
ख़ुद अपने तरीक़े में क़लंदर मैं हूँ
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा
मैं बुग़्ज़ के अम्बार से क्या लाता हूँ
रहमत की कड़ी धूप में लेटूँ मौला
हर हर्फ़ में मह-पारों के क़द बनते हैं
दिल्ली से वो जा रहा था जिस दम क़ंधार