तू है कि एलोरा की कोई मूर्ती है
इतनी जो बदन की तिरी ख़ूब-सूरती है
आज़ा-ए-नुमूदार की गोलाई से
रह रह के तिरी जिंसी कशिश घूरती है
Allama Iqbal
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शागिर्द किसी का हूँ न उस्ताद हूँ मैं
लिक्खे हैं फ़क़ीर ने जो शाही अल्फ़ाज़
फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
उन की तो ये इरफ़ानी मनाज़िल में से है
घर लौह का आबाद किया है ऐ दोस्त
गेसू में वो सुम्बुल के चमन हैं मालूम
जो नक़्श थे पामाल बनाए मैं ने
इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का
तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
तहसीन के तोहफ़े मुझे 'साइब' देता
इक बोलती सूरत का नमूना क्या है