तन के लिए अहकाम-ए-दक़ीक़ा भी सुनाओ
ग़ुस्ल-ए-मख़्सूस का सलीक़ा भी सिखाओ
नज़रें बुरा काम कर के ताहिर हों, मुझे
ऐ अहल-ए-शरीअत वो तरीक़ा भी बताओ
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तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
शागिर्द किसी का हूँ न उस्ताद हूँ मैं
वो जिस को मोहब्बत की रविश कहते हैं
तू है कि एलोरा की कोई मूर्ती है
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
इक बोलती सूरत का नमूना क्या है
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
लिक्खे हैं फ़क़ीर ने जो शाही अल्फ़ाज़
उन की तो ये इरफ़ानी मनाज़िल में से है
हाँ जुमला फ़नून-ए-ज़िंदगानी सीखे
उस हस्ती-ए-मंजली से विर्से में मिला
हाँ मफ़्ती-ए-शहर ने फ़तवे भेजे