हाँ मफ़्ती-ए-शहर ने फ़तवे भेजे
और मुझ को हसीनों ने लिफ़ाफ़े भेजे
नीले काग़ज़ पे अपने कच्चे ख़त में
फ़न पर मिरे लिख लिख के क़सीदे भेजे
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इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का
तहसीन के तोहफ़े मुझे 'साइब' देता
गेसू में वो सुम्बुल के चमन हैं मालूम
ज़ाहिर है रुबाई में मिरी दम क्या है
मैं बुग़्ज़ के अम्बार से क्या लाता हूँ
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
दिल्ली से वो जा रहा था जिस दम क़ंधार
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा
ख़ुद अपने तरीक़े में क़लंदर मैं हूँ
उस हस्ती-ए-मंजली से विर्से में मिला
रहमत की कड़ी धूप में लेटूँ मौला