तहसीन के तोहफ़े मुझे 'साइब' देता
शाबाश मुझे 'उर्फ़ी' या 'तालिब' देता
ख़त की मिरे दाद आज जो ज़िंदा होते
या 'शाहजहाँ' देता या 'ग़ालिब' देता
Anwar Masood
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ज़ाहिर है रुबाई में मिरी दम क्या है
उस हस्ती-ए-मंजली से विर्से में मिला
हर हर्फ़ में मह-पारों के क़द बनते हैं
तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
गेसू में वो सुम्बुल के चमन हैं मालूम
मेहराब की परछाइयाँ तड़पाती हैं
हाँ मफ़्ती-ए-शहर ने फ़तवे भेजे
इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
घर लौह का आबाद किया है ऐ दोस्त
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा