घर लौह का आबाद किया है ऐ दोस्त
इक ख़त नया ईजाद किया है ऐ दोस्त
उस्तादों ने अबजद को मुक़य्यद था किया
मैं ने उन्हें आज़ाद किया है ऐ दोस्त
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शहबाज़-ए-नबी चर्ख़ पे मंडलाया था
हम साँप पकड़ लेते हैं बीनों के बग़ैर
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा
वो जिस को मोहब्बत की रविश कहते हैं
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
उस हस्ती-ए-मंजली से विर्से में मिला
तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
जो नक़्श थे पामाल बनाए मैं ने
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
लिक्खे हैं फ़क़ीर ने जो शाही अल्फ़ाज़
इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का