गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
फिर तो मुझे कुछ काम नहीं दुनिया में
यकताई का दावा फ़क़त इस बात पे है
कोई मिरा हमनाम नहीं दुनिया में
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हैं क़ाफ़ से ख़त्ताती में पैदा औसाफ़
ज़ाहिर है रुबाई में मिरी दम क्या है
मैं बुग़्ज़ के अम्बार से क्या लाता हूँ
दिल्ली से वो जा रहा था जिस दम क़ंधार
फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को
हाँ मफ़्ती-ए-शहर ने फ़तवे भेजे
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा
शहबाज़-ए-नबी चर्ख़ पे मंडलाया था
तहसीन के तोहफ़े मुझे 'साइब' देता
मेहराब की परछाइयाँ तड़पाती हैं
वो जिस को मोहब्बत की रविश कहते हैं
लिक्खे हैं फ़क़ीर ने जो शाही अल्फ़ाज़