गेसू में वो सुम्बुल के चमन हैं मालूम
सेंडे में वो निकलते जो समन हैं मालूम
वो जो तिरे हम्माम में आईने हैं
उन को तिरे सब राज़-ए-बदन हैं मालूम
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आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
हैं क़ाफ़ से ख़त्ताती में पैदा औसाफ़
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को
तख़्लीक़ के सक़्फ़-ओ-बाम पाटे जाएँ
हम साँप पकड़ लेते हैं बीनों के बग़ैर
इक बोलती सूरत का नमूना क्या है
उन की तो ये इरफ़ानी मनाज़िल में से है
तू है कि एलोरा की कोई मूर्ती है
तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा