फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को
बग़दाद में ज़ैतून की डाली मुझ को
लाहौर में दी गई है लेकिन ऐ दोस्त
ख़त्ताती के एजाज़ पे गाली मुझ को
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तख़्लीक़ के सक़्फ़-ओ-बाम पाटे जाएँ
इस शाम वो सर में दर्द सहना उस का
ज़ाहिर है रुबाई में मिरी दम क्या है
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
गेसू में वो सुम्बुल के चमन हैं मालूम
वो जिस को मोहब्बत की रविश कहते हैं
तहसीन के तोहफ़े मुझे 'साइब' देता
तन के लिए अहकाम-ए-दक़ीक़ा भी सुनाओ
घर लौह का आबाद किया है ऐ दोस्त
मेहराब की परछाइयाँ तड़पाती हैं
सच्चाई पे इक निगाह कर लूँ या-रब