मेहराब की परछाइयाँ तड़पाती हैं
गुम्बद की ये गोलाइयाँ छा जाती हैं
आती हैं तिरे जिस्म की दिल में यादें
ये कैसी इमारात नज़र आती हैं
Ahmad Faraz
Habib Jalib
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ज़ाहिर है रुबाई में मिरी दम क्या है
साक़ी ने हमें साग़र-ए-जम बख़्शे हैं
तू है कि एलोरा की कोई मूर्ती है
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
हाँ जुमला फ़नून-ए-ज़िंदगानी सीखे
तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
लिक्खे हैं फ़क़ीर ने जो शाही अल्फ़ाज़
वो जिस को मोहब्बत की रविश कहते हैं
हैं क़ाफ़ से ख़त्ताती में पैदा औसाफ़
शहबाज़-ए-नबी चर्ख़ पे मंडलाया था
ख़ुद अपने तरीक़े में क़लंदर मैं हूँ
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में