हैं क़ाफ़ से ख़त्ताती में पैदा औसाफ़
अबजद का जमाल जिस का करता है तवाफ़
बिन मुक़्ला हो याक़ूत हो या हो ये फ़क़ीर
हम तीनों के दरमियान-ए-अस्मा में है क़ाफ़
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जो नक़्श थे पामाल बनाए मैं ने
शहबाज़-ए-नबी चर्ख़ पे मंडलाया था
गर अपनी सना आम नहीं दुनिया में
घर लौह का आबाद किया है ऐ दोस्त
गेसू में वो सुम्बुल के चमन हैं मालूम
दिल्ली से वो जा रहा था जिस दम क़ंधार
इक बोलती सूरत का नमूना क्या है
फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
तन के लिए अहकाम-ए-दक़ीक़ा भी सुनाओ
उस हस्ती-ए-मंजली से विर्से में मिला
हम साँप पकड़ लेते हैं बीनों के बग़ैर