जो नक़्श थे पामाल बनाए मैं ने
फिर उलझे हुए बाल बनाए मैं ने
तख़्लीक़ के कर्ब की जो खींची तस्वीर
फिर अपने ख़द-ओ-ख़ाल बनाए मैं ने
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रहमत की कड़ी धूप में लेटूँ मौला
हर हर्फ़ में मह-पारों के क़द बनते हैं
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
ज़ाहिर है रुबाई में मिरी दम क्या है
तन के लिए अहकाम-ए-दक़ीक़ा भी सुनाओ
तख़्लीक़ के सक़्फ़-ओ-बाम पाटे जाएँ
शागिर्द किसी का हूँ न उस्ताद हूँ मैं
ख़ुद अपने तरीक़े में क़लंदर मैं हूँ
उन की तो ये इरफ़ानी मनाज़िल में से है
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
हाँ जुमला फ़नून-ए-ज़िंदगानी सीखे