हर हर्फ़ में मह-पारों के क़द बनते हैं
लौहों पे वो इक हुस्न की हद बनते हैं
काकुल के ख़याल ही में लिखा हूँ लाम
अबरू के तसव्वुर में ही हद बनते हैं
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जो नक़्श थे पामाल बनाए मैं ने
रहमत की कड़ी धूप में लेटूँ मौला
इक बोलती सूरत का नमूना क्या है
उस हस्ती-ए-मंजली से विर्से में मिला
शागिर्द किसी का हूँ न उस्ताद हूँ मैं
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
घर लौह का आबाद किया है ऐ दोस्त
हाँ मफ़्ती-ए-शहर ने फ़तवे भेजे
हम साँप पकड़ लेते हैं बीनों के बग़ैर
तन के लिए अहकाम-ए-दक़ीक़ा भी सुनाओ
मैं बुग़्ज़ के अम्बार से क्या लाता हूँ
मेहराब की परछाइयाँ तड़पाती हैं