ख़ुद अपने तरीक़े में क़लंदर मैं हूँ
ख़ुद अपने सलीक़े में हुनर-वर मैं हूँ
ख़ुद अपने बनाए हुए आईनों में
ख़ुद-गीर हूँ ख़ुद-निगर हूँ ख़ुद-गर मैं हूँ
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तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
हाँ मफ़्ती-ए-शहर ने फ़तवे भेजे
वो जिस को मोहब्बत की रविश कहते हैं
रहमत की कड़ी धूप में लेटूँ मौला
बचपन में तुझे याद किया था मैं ने
घर लौह का आबाद किया है ऐ दोस्त
तहसीन के तोहफ़े मुझे 'साइब' देता
हम साँप पकड़ लेते हैं बीनों के बग़ैर
शागिर्द किसी का हूँ न उस्ताद हूँ मैं
जो नक़्श थे पामाल बनाए मैं ने
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं